इन्सुलिन क्या है? और कैसे काम करता है?

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इन्सुलिन क्या है?

पाचन तन्त्र आपके खाने में मौजूद कार्बोहाइड्रेट्स को ग्लूकोज़ में बदल देता है. इंसुलिन, एक ऐसा हॉर्मोन है जो आपके पैंक्रियाज़ (अग्न्याशय) नाम के अंग से उत्पन्न होता है.ये ग्लूकोज़ को अवशोषित और कार्बोहाइड्रेट्स और फ़ैट मेटाबॉलिज़्म  को नियंत्रित करता है.
टाइप 1 डायबिटीज़ में शरीर इंसुलिन बनाना बंद कर देता है, जबकि टाइप 2 डायबिटीज़ में शरीर या तो सही मात्रा में इंसुलिन बनाना बंद कर देता है या फिर सही ढंग से इस्तेमाल करना कम कर देता है.

इंसुलिन कैसे बनता है?

-इंसुलिन का उत्पादन हमारे अग्नाश्य यानी पैनक्रियाज में होता है। भोजन करने के बाद जब रक्त में शुगर और ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाता है, उस समय उस बढ़ी हुई शुगर को नियंत्रित करने के लिए इंसुलिन का स्त्राव होता है।

प्रभाव

इंसुलिन एक ग्लूकोज को रक्त के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश देता है। इसकी अनुपस्थिति में मधुमेह रोग हो जाता है। इसके इंजेक्शन से रक्त शर्करा की मात्रा घट जाती है। अतएव इंसुलिन की आवश्यकता शरीर को ऊर्जा प्राप्त करने हेतु ग्लूकोज का प्रयोग करने के लिए होती है। मधुमेह रोगियों में इंसुलिन के स्राव की मात्रा स्वस्थ व्यक्तियों की अपेक्षा कम होती है या स्रवित इंसुलिन ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाता है। शरीर में रक्त नलिकाएं ग्लूकोज एवं इंसुलिन को एक साथ लेकर चलती हैं एवं यदि शरीर में पर्याप्त इंसुलिन उपलब्ध नहीं होता है तो ग्लूकोज केवल रक्त में ही सीमित रह जाता है और कोशिकाओं को नहीं मिल पाता है, जिससे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा नहीं मिल पाती और यही ग्लूकोज़ मूत्र के रास्ते बाहर निकल जाती है।

मधुमेह जब ४० वर्ष के लगभग हो तो उसे टाइप-२ मधुमेह कहते हैं। भारत के ९५%-९८%रोगी टाइप-२ के ही हैं। बचपन में होने वाले मधुमेह को टाइप-१ कहते हैं। टाइप वन में अग्नाशय में इन्सुलिन स्त्रावित करने वाली बीटा कोशिकाएं पूर्णतः बर्बाद हो जाती हैं। इन रोगियों को बिना इन्सुलीन की सूई के कोई दूसरा चारा नहीं हैं। टाइप-२ के रोगियों में बीटा कोशिकाएं कुछ-कुछ बची रहती है और दवाइयों द्वारा उन्हें झकझोर कर इन्सुलिन स्त्रावित करने को बाध्य किया जाता है, किन्तु इस तरह बीटा कोशिकाओं को झकझोरने की भी एक सीमा होती हैं और अन्ततः एक समय आता है जब वह थेथर हो जाता है और तब दवाइयां असर नहीं करतीं।

हाल में दुनिया में हुए डी सी सी टी ट्रायल और यू के पी डी परीक्षणों के परिणामों से ज्ञात हुआ है कि मधुमेह-रोगियों के लिए हर हाल में रक्त-शर्करा स्तर सही बनाये रखना अत्यावश्यक होता है। इस प्रकार टाइप-२ के रोगियों को भी अन्ततः थोड़ा-बहुत इंसुलिन की आवश्यकता तो होती ही है। ये भी आवश्यक नहीं कि एक बार इन्सुलीन लेना आरंभ कर देने से जीवन पर्यन्त इंसुलिन लेनी होगी। यह भी संभव है, कि कुछ दिन ही इंसुलिन लेने पर लाब हो और बाद में दवाइयों से काम चल जाये। इंसुलिन के कई दुष्प्रभाव भी हैं: इससे वज़न में बढोत्तरी होने का डर, इन्सुलीन रेसीसटेन्ट की अवस्था, इन्सुलीन द्वारा थक्के बनने का डर, इन्सुलीन द्वारा ब्लड सुगर जरूरत से ज्यादा कम होने (हाइपोग्लाईसीमिया) का डर आदि कई समस्याओं का अंदेश रहता है।

प्रगति

अमरीका के नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय और ब्राज़ील में रियो डी जनेरो के फ़ेडरल विश्वविद्यालय में शोधरत वैज्ञानिकों के अनुसार इंसुलिन अल्ज़ाइमर्स रोग के उपचार में प्रयोग किया जा सकता है। ये मनुष्य की स्मृति खोने से मस्तिष्क का बचाव करता है। अल्जाइमर मस्तिष्क के मधुमेह का ऐसा रूप है जहाँ ख़तरनाक प्रोटीन मस्तिष्क की कोशिकाओं को इंसुलिन की सुरक्षा की कमी होने की वजह से बहुत हानि पहुँचा सकती हैं। किसी व्यक्ति को तब मधुमेह होता है जब उसका शरीर इंसुलिन हॉर्मोन निर्माण में असमर्थ हो जाता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता भी मस्तिष्क से याददाश्त मिटाने वाले अल्ज़ाइमर्स रोग को बढ़ाने में सहायक एक कारक हो सकता है।इसकी रिपोर्ट नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज़ के प्रकाशन यूएस जर्नल में प्रकाशित हुई है। भारत में बायोकॉन नामक कंपनी ने बसालॉग नामक एक इंसुलिन ब्रांड निकाला है, जो आम उपलब्ध इंसुलिन से ४० प्रतिशत सस्ता होगा इससे लंबे समय तक लेने के बाद इंजेक्शन लगाने वाले स्थान पर अभिक्रिया होने व वसा कम होने की संभावना होती है। भारत में मुंबई के श्रेया लाइफ साइंसेज द्वारा एक ओरल इंसुलिन स्प्रे विकसित किया गया है। इस ओरल-रिकोसुलीन से रोगी को इंसुलिन का इंजेक्शन लेने से मुक्ति मिलेगी। इसे मुंह व नाक के रास्ते स्प्रे द्वारा लिया जा सकेगा। इस स्प्रे का प्रयोग टाइप-१ और टाइप-२ मधुमेह रोगी कर सकते हैं। इसके एक पैकेट का मूल्य लगभग २००० रुपए है। यहां ये ध्यान योग्य है, कि भारत विश्व की मधुमेह राजधानी है। यहां मधुमेह के ४ करोड़ रोगी हैं, जिनका प्रतिशत १०-१२% की दर से बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार अकेले भारत में ही ५४० करोड़ रु. के इंसुलिन की खपत होती है।

इन्सुलिन के प्रकार

  • रैपिड-एक्टिंग इंसुलिन इस प्रकार का इंसुलिन मानव शरीर में इंजेक्शन लगाने के लगभग 15 मिनट बाद अपना काम करना शुरू कर देता है। इस प्रकार के इंसुलिन का प्रभाव तीन से चार घंटे तक रह सकता है। इसका उपयोग अक्सर भोजन से पहले किया जाता है।
  • शॉर्ट-एक्टिंग इंसुलिन इस प्रकार के इंसुलिन को भोजन से पहले शरीर में इंजेक्ट करने की आवश्यकता होती है। इसके शरीर में इंजेक्ट होने के 30 से 60 मिनट बाद यह काम करना शुरू कर देता है और पांच से आठ घंटे तक प्रभावी रहता है।
  • इंटरमीडिएट-एक्टिंग इंसुलिन  – इस प्रकार का इंसुलिन इंजेक्शन शरीर में प्रवेश करने के बाद एक से दो घंटे में काम करना शुरू कर देता है, और इसका प्रभाव 14 से 16 घंटे तक रह सकता है।
  • लॉन्ग-एक्टिंग इंसुलिन – यह इंसुलिन इंजेक्शन लगाने के लगभग दो घंटे से अधिक समय के बाद काम करना शुरू कर सकता है। इस प्रकार के इंसुलिन का प्रभाव 24 घंटे या उससे अधिक समय तक रह सकता है।

इन्सुलिन के कार्य

इंसुलिन शरीर में निम्न तरह के कार्यों को करता है,

  • जब मानव का पाचन तंत्र आहार में उपस्थित कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में बदल देता है, तब उत्पन्न हुआ ग्लूकोज, छोटी आंत में अस्तर के माध्यम से रक्तप्रवाह में अवशोषित हो जाता है। अतः कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोज या रक्त शर्करा को अवशोषित करने और ग्लूकोज से ऊर्जा उत्पादन करने के लिए इंसुलिन जरुरी होता है।
  • इंसुलिन यकृत कोशिकाओं, मांसपेशियों और वसा ऊतकों द्वारा रक्त से ग्लूकोज को ग्रहण कर ग्लाइकोजन में परिवर्तित करने का कारण बनता है, ग्लाइकोजन को यकृत और मांसपेशियों में उर्जा स्त्रोत के रूप में संग्रहित किया जाता है।
  • इंसुलिन, शरीर द्वारा वसा का उपयोग ऊर्जा स्रोत के रूप में करने से रोकता है। इंसुलिन की कमी या अनुपस्थिति में, शरीर की कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोज का अवशोषण नहीं किया जाता है, अतः इस स्थिति में शरीर ऊर्जा स्रोत के रूप में वसा का उपयोग करना शुरू कर देता है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। अतः इन्सुलिन, वसा का उर्जा स्त्रोत के रूप में उपयोग होने से रोकता है।
  • इंसुलिन अन्य शरीर प्रणालियों  को भी नियंत्रित करने का कार्य करता है। यह शरीर की कोशिकाओं द्वारा अमीनो एसिड को नियंत्रित करता है।
  • इंसुलिन रक्त शर्करा के स्तर को बहुत अधिक (हाइपरग्लेसेमिया) या बहुत कम (हाइपोग्लाइसीमिया) होने से रोकता है।
  • यह पूरे शरीर में अनेक उपचय प्रभाव  भी दर्शाता है, इंसुलिन हड्डी के विकास और मांसपेशियों में वृद्धि का कारण बनता है।

इन्सुलिन कैसे  बनता है?

प्राकृतिक रूप से इन्सुलिन का उत्पादन अग्न्याशय  में होता है। इंसुलिन एक प्रकार की प्रोटीन श्रृंखला या पेप्टाइड हार्मोन होता है। इंसुलिन के एक अणु में 51 अमीनो एसिड होते हैं। इंसुलिन का आणविक भार 5808 dalton (1dalton = 1 g/mol) होता है। अग्न्याशय में लैंगरहैंस कोशिकाओं के आइलेट्स  में इंसुलिन का उत्पादन होता है। ये कोशिकाएं लगातार इंसुलिन की थोड़ी मात्रा जारी करती रहती हैं, लेकिन जब रक्त शर्करा के स्तर में वृद्धि होती है तब अग्न्याशय स्त्राव होने वाले इंसुलिन की मात्रा में भी वृद्धि हो जाती है।इंसुलिन की संरचना जानवरों की प्रजातियों के बीच थोड़ी भिन्न होती है। सूअर और गाय दोनों के इंसुलिन, मानव इंसुलिन के समान ही होते हैं। अतीत काल में, गाय और सुअर से इंसुलिन को निकाला जाता था।

इन्सुलिन की  खोज

19वीं शताब्दी के आखिर में कुत्तों पर टेस्ट किए गए और पता चला कि डायबिटीज के रोगियों के पित्त में एक पदार्थ की कमी होती है. पित्त को निकालकर इलाज करने की कोशिश भी हुई. लेकिन पैंक्रियाज को निकालते समय पाचक रस सभी तत्वों को नष्ट कर देते.

1920 के दशक में कनाडा के दो डॉक्टरों फ्रेडरिक बैटिंग और चार्ल्स बेस्ट ने क्रांतिकारी खोज की. उन्होंने इंसुलिन खोजा. ऐसा तत्व जो भोजन से मिलने वाली शुगर को, रक्त के जरिए हमारी कोशिकाओं तक पहुंचाता है. इंसुलिन की मदद से कोशिकाएं शुगर सोखती हैं. शरीर में शुगर के जलने से जीवन के लिए जरूरी ऊर्जा मिलती है. अगर इंसुलिन की कमी हो तो पर्याप्त भोजन के बावजूद कोशिकाएं भूखी रह जाती हैं और शरीर के अंगों को नुकसान पहुंचने लगता है.

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